Wednesday, March 16, 2022

लघुकथा जीवंत और गतिशील विधा है - अशोक लव

 •जीवंत व गतिशील विधा : लघुकथा (एक) / अशोक लव

 "लघुकथा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। असंख्य पाठकों और सैंकड़ों लेखकों ने इसे लोकप्रियता प्रदान की है। यह स्थिति दशकों से शनै:- शनै: विकसित हुई है।" -अशोक लव



    लघुकथा, कथा साहित्य की अन्य विधाओं यथा कहानी और उपन्यास के समान ही एक विधा है। कहानियों और उपन्यासों के विषय असीमित और विविधता लिए होते हैं, वही स्थिति लघुकथा की है। लघुकथा के कथ्य का कोई भी विषय हो सकता है। यह लेखक पर निर्भर है कि वह किसका चयन करता है। यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि लघुकथाएँ इन विषयों पर ही लिखी जा सकती हैं।

लघुकथा नकारात्मक सोच की विधा नहीं है। सामाजिक स्थितियों, विसंगतियों, रूढ़ियों, व्यवस्थाओं, मानवीय भावनाओं, संबंधों, विचारों; धार्मिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों पर साहित्य की अन्य विधाओं में भी लिखा जाता है; उन पर कटाक्ष भी किया जाता है; लघुकथा में भी ऐसा ही किया जाता है। इसलिए लघुकथा को नकारात्मक विधा कहना उचित नहीं है। लघुकथा का सकारात्मक अकाश उतना ही व्यापक है, जितना अन्य विधाओं का है।

प्रत्येक विधा का अपना व्याकरण होता है, अपना शास्त्र होता है; अपनी संरचना के मूलभूत स्वरूप के कारण उसकी विशेषता होती है। कहानी न तो उपन्यास है और व्यंग्य कहानी नहीं है। प्रत्येक विधा की संरचना उसके शास्त्रीय तत्त्वों के आधार पर होती है। कहानी में व्यंग्य हो सकता है, लघुकथा में भी व्यंग्य हो सकता है। इस आधार पर यह व्यंग्य विधा नहीं हो जाती। दोनों स्वतंत्र विधाएँ हैं। उनका अपना विशिष्ट संरचनात्मक स्वरूप है। कहानी और लघुकथा 'कथा' परिवार की विधाएँ तो है परंतु उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। कहानी, लंबी या छोटी हो सकती है। परंतु छोटी कहानी लघुकथा नहीं बन जाती।

लघुकथा अपने आकारगत रूप के कारण लघुकथा कहलाई। इसलिए लघु होना, इसका महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका निर्वाह अत्यंत आवश्यक होता है। लघुकथा का स्वरूप कितना लागू होगा, यह उसके कथ्य पर निर्भर है। लघुकथा पाँच-छह वाक्यों की हो सकती है तो सौ से दो सौ वाक्यों अथवा शब्दों की भी हो सकती है। यह लघुकथाकार की क्षमता और लेखकीय कौशल पर निर्भर है कि वह उसे कितना विस्तार देना चाहता है। वस्तुत: लघुकथा, लघुकथाकार की सामर्थ्य की पर्याय । उसके लेखन कौशल की परीक्षक है। एक ही विषय पर कहानी भी लिखी जा सकती है और लघुकथा भी। परिवार में वृद्धों की स्थिति पर अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं और लघुकथाएँ भी लिखी गई है।

समसामयिक स्थितियों पर लघुकथाएँ अधिक लिखी जाती हैं। इसका कारण है कि लघुकथा किसी घटना के सूक्ष्म बिंदु पर केंद्रित रहती है। वह सूक्ष्मतम बिंदु अनावश्यक विस्तार नहीं चाहता। सामयिक घटना तुरंत घटती है और लघुकथा उसके मूल पर केंद्रित रहती हैं। इसमें विस्तार की संभावनाएँ रहती ही नहीं है। कुशल लेखक उसी सूक्ष्मतम मूल बिंदु को लेकर लघुकथा का ताना-बाना बुनता है। वह अल्प शब्दों में अपना उद्देश्य स्पष्ट कर देता है। किसी व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करने के लिए कालखंड का ध्यान रखना होता है। लघुकथा उस कालखंड में व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करती है। विषय कोई हों, लघुकथा कथ्य के चारों और ही भ्रमण करती है। इसलिए वह विस्तार से बचती है। जहाँ अनावश्यक विस्तार हुआ लघुकथा के बिखर जाने की संभावना बढ़ जाती है। अनावश्यक विस्तार के कारण उसके कहानी बन जाने की आशंका रहती है।

लघुकथा त्वरित गति की विधा है। लघुकथा विशाल नदी का मंद-मंद बेहतर प्रवाह नहीं अपितु निर्झर के उछलते जल का तीव्र प्रवाह है। लघुकथा की यात्रा कम-से-कम शब्दों की होती है। इसी लघु आकार में लघुकथाकार बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और अलंकारों द्वारा इसके सौंदर्य को सजाता-सँवारता है।

लघुकथा, कथा साहित्य की समर्थ विधा है। इसके लघु स्वरूप में जीवन के विविध स्वरूपों, परिदृश्यों आदि को समाहित कर लेने की क्षमता है। लघुकथा सेल्फी द्वारा खींचा फोटोग्राफ़ है. सीमित और आवश्यक वस्तुओं का चित्र! यह सागर की गहराई और आकाश के विस्तार को अपने लघु स्वरूप में समा लेती है।

मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करने वाली रचनाएँ अधिक प्रभावशाली होती हैं, श्रेष्ठता लिए रहती हैं। लघुकथा जहाँ तीख व्यंग्यों द्वारा हृदय को बेधने की क्षमता रखती है, वहीं अपनी संवेदना सामर्थ्य के कारण हृदय के मर्म का स्पर्श करने में सक्षम होती है। सातवें-आठवें दशक के आरंभिक कालखंड की अधिकांश लघुकथाएँ व्यवस्था और विसंगतियों पर तीखे व्यंग्य करती थी; शनै:-शनै उनमें मानवीय संवेदनाओं का पक्ष प्रबल होता गया और मानवीय संबंधों की लघुकथाएँ प्रचुर मात्रा में लिखी जाने लगीं। गत दो दशकों में इन की प्रधानता हो गई है। लघुकथा की लोकप्रियता का यह भी एक कारण है।

इस विधा के प्रसार के साथ लेखकों की भीड़ जुड़ती चली गई। इनमें से अधिकांश ने इस विधा के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया और छोटे-छोटे प्रसंगों, चुटकुलों, गप्प-गोष्ठियों के किस्सों को लघुकथा का नाम देकर छपवाना आरंभ कर दिया। वर्तमान में लघुकथा के नाम पर ऐसी रचनाओं का अंबार लग गया है। यह स्थिति चिंताजनक है। केवल प्रकाशित हो जाने के मोह से लिखने वाले लघुकथा विधा का अहित कर रहे हैं। उन्हें न अपनी छवि की चिंता है न ही विधा की।

श्रेष्ठ लघुकथाओं को बार-बार पढ़ने का मन होता है। उन्हें जितनी बार पढें, वह उतना ही अद्भुत आनंद देती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सैकड़ों लघुकथाएँ लिखी जाएँ, जितनी भी लिखें उनका लघुकथा होना आवश्यक होता है।

श्रेष्ठ लेखक अपनी रचनाओं का प्रथम समीक्षक होता है। वह अपनी रचना को बार-बार पढ़ता है, उसे परिमार्जित करता है। वरिष्ठ और प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपने अनुभवों में इसका वर्णन किया है। इसलिए सर्वप्रथम लघुकथाकारों को स्वयं ही अपनी लघुकथाओं का मूल्यांकन करना चाहिए।

लघुकथा की एक विशेषता है इसकी व्यंजना शक्ति। जिस तरह कविता में सपाटबयानी दोष मानी जाती है। उसी प्रकार 'आँखों देखा हाल' वर्णन करने वाली अभिधा शक्ति की लघुकथाओं को श्रेष्ठ नहीं समझा जाता। साहित्यकार अपने अनुभवों, अभ्यास और साधना के द्वारा श्रेष्ठ सृजन करते हैं।

लघुकथा विधा में समीक्षकों का संकट आरंभ से है । कुछ हैं जो स्वयं लघुकथाकार है, श्रेष्ठ लघुकथाकार हैं पर लघुकथा के मापदंडों से अनभिज्ञ होने के कारण मनचाही समीक्षाएँ कर रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार और समालोचक डॉ० ब्रजकिशोर पाठक ने इस विषय में लिखा है—‘लघुकथा यदि साहित्य रचना विधान है तो इसमें भी ध्वन्यात्मकता होगी ही। प्रतीक, मिथक और अभिव्यक्ति की वक्रता को आम आदमी कैसे पचा सकता है? आम आदमी क्या. सहृदय समीक्षक के लिए भी कवि-साहित्यकार की संवेदना, अनुभूति और लेखक की मुद्रा को पकड़ना कठिन होता है। इसलिए समीक्षा वैयक्तिक होती है। आलोचक की वैयक्तिकता का प्रभाव पड़ने के कारण ही एक ही कृति को कई रूपों में विश्लेषित होना पड़ता है। इसलिए लघुकथा स्वातंत्रयोत्तर भारत की उपजी अनास्था और समाधानरहित समस्याओं से जुड़ी होने के बाद लोकप्रिय' नहीं हुई बल्कि इसे सहज विधा रचना मानकर रचनाधर्मियों ने भीड़ पैदा की है। इनमें अनावश्यक हंगामे में मूल्यांकन की दिशाहीनता भी देखने को मिली क्योंकि साहित्यिक रचनाधर्मिता से सीधा लगाव न होने के कारण शास्त्रविहीन लोग ही मूल्यांकनकर्ता बन गए।’ (साहित्यकार अशोक लव बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 18-19, वर्ष 2004)

इसी क्रम में डॉ ब्रजकिशोर पाठक का मानना है—‘...इन लोगों ने नाटक, उपन्यास और कहानी के तत्त्वों को लघुकथा पर आरोपित किया था और कथानक, चरित्र चित्रण, कथोपकथन आदि बातें लघुकथा पर आरोपित करके वस्तुतः साहित्यकारों को धर्मसंकट में डाल दिया था। यदि लघुकथा की आलोचना की जाए तो कहानी की समीक्षा हो जाएगी। लघुकथा की लकड़ी के बोटे से आरी चलाकर पटरी निकालना बेवकूफ़ी है। आलोचना को 'कथाकथ्य' (कथ्य और अकथ्य) की स्थिति में डालकर देना ही लघुकथा की सफलता है। यह 'कथाकथ्थय' (कथा और कथ्य) बहुत प्रचलित हुआ और 'कथाकथ्य' (कथा और कथ्य) के रूप में प्रयुक्त होने लगा। मेरे विचार से लघुकथा में 'कथानक' नहीं हो सकता। यहाँ एक प्रमुख स्थिति या घटना होती है। और उसी से अन्य छोटी-छोटी प्रासंगिक घटनाएँ और स्थितियाँ होती है। लघुकथा में चरित्र चित्रण नहीं होता; पात्र-योजना होती है। कथोपकथन नहीं होता संवाद होते हैं। कथानक के बदले 'घटना' लघुकथा में आकर 'कथाभास' के रूप में प्रयुक्त होती है। इस सूक्ष्म भेद के न जानने के कारण ही कुछ लघुकथाकार छोटी कहानी जैसी चीज़ लघुकथा के नाम पर लिखते रहे हैं।’ (साहित्यकार अशोक लव : बहुआयामी हस्ताक्षर, पृष्ठ 21-22, वर्ष 2004)

इसी तरह लघुकथा और कहानी में अंतर एकदम स्पष्ट हो जाता है। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से कहानी का कथानक लघुकथा की घटना की अपेक्षा व्यापकता लिए रहता है। उसकी शैली लघुकथा से भिन्न होती है। उसका विकास लघुकथा की भाँति नहीं होता। लघुकथा की गति और प्रवाह भिन्न होता है। लघुकथा का आरंभ उत्सुकता लिए रहता है, विकास इसे और बढ़ाता है और उसके कथ्य को गति प्रदान करता है। चरमसीमा पर वह लघुकथा का अंत हो जाता है। यहीं लघुकथा का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।

‘लघुकथा कलश’ आलेख महाविशेषांक-1 (जुलाई-दिसंबर 2020, संपादक : योगराज प्रभाकर) में प्रकाशित

Monday, March 7, 2022

Ashok Lav Ki Laghukathayen --International Hindi Samiti America

INTERNATIONAL HINDI ASSOCIATION'S NEWSLETTER फरवरी 2022, अंक ९ प्रबंध सम्पादक: सुशीला मोहनका
अशोक लव नें दिल्ली विश्वविद्यालय और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण की है। उन्होंने नेशनल म्यूजियम, नयी दिल्ली से ‘आर्ट एप्रीसियेशन’ कोर्स भी किया है। उनकी प्रथम रचना १९६३ में प्रकाशित हुई थी, उस समय वे स्कूल में पढ़ते थे। उन्होंने ३० वर्ष आध्यापन किया है। वे पत्रिकारिता के क्षेत्र में कार्य करते है। उनकी साहित्यिक और शैक्षिक लगभग १५० पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। अभी ये अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की भारत शाखा के दिल्ली अन.सी.आर. शाखा के अध्यक्ष है। उनकी दो लघुकथाएँ छोटे बच्चों के लिए नीचे दी जा रही है| दो लघुकथाएँ १) लघुकथा- पापा तो पापा होते हैं मानवी दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। लॉकडाउन के पैंतीसवें दिन उसका धैर्य बिखरने-बिखरने को हो गया था। वह सारी स्थिति समझ रही थी। उसने हठ करना छोड़ दिया था अन्यथा प्रत्येक शनिवार वह हठ करके मम्मी-पापा को डिनर के लिए बाहर ले जाने पर विवश कर देती थी। उसने भाँति-भाँति की फ़रमाइशें बंद कर दी थीं। वह जानती थी मॉल बंद थे, बाज़ार बंद थे। अब मित्रों के साथ वीडियो-चैटिंग कर लेती थी। उसकी कक्षाएँ ऑनलाइन होती थीं। वह अपने गानों की वीडियो बनाती थी। पेंटिंग करती थी। वह लॉकडाउन का समय व्यतीत करना सीख गई थी। छह वर्ष की मानवी और कितना धैर्य रखती ! उसने पापा को कहा-"पापा, आज मैं आपके साथ दूध लेने जाऊँगी। मैं मास्क लगा लूँगी।" वह इसके आगे कुछ कहती परंतु उसका गला रुँध गया था। उसकी आँखों में आँसू तैरने लगे थे। "अरे, हमारी मानवी तो बहादुर बच्ची है। हम अभी एकसाथ दूध लेने चलेंगे। मदर डेयरी से चॉकलेट और आइसक्रीम भी लेंगे।"पापा ने उसे गले लगाते हुए कहा। पापा ने अपने आँसू रोक रखे थे क्योंकि वे पापा जो थे। २) लघुकथा - बेचारा जगदीश वृद्धा पत्नी पति को धमकाते हुए कह रही थी-" शुभम दूध लाने नहीं जाएगा।" वृद्ध जगदीश समझा रहा था-" टीवी पर बार-बार चेतावनी दी जा रही है, बार-बार समझाया जा रहा है, साठ वर्ष से अधिक के वरिष्ठ नागरिक घर से बाहर न निकलें। मैं तो सत्तर के हो गया हूँ।" नारायणी कहने लगी-" आपको कोरोना ने संक्रमित कर दिया तो क्या अंतर पड़ेगा शाखाओं के कार्यक्रम के रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति -- उत्तरपूर्वी ओहायो शाखा साहित्यिक संध्या, विश्व-हिंदी दिवस, जनवरी २०२२ डॉ. तस्नीम लोखंडवाला लेखन और प्रस्तुति डॉ. सुनीता द्विवेदी अनुवाद ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की उत्तरपूर्वी ओहायो शाखा ने ‘विश्व हिंदी दिवस’ के उपलक्ष्य में रविवार, २३ जनवरी २०२२ को ज़ूम के माध्यम से आभासी ‘साहित्यिक-संध्या’ का आयोजन किया था। इस साहित्यिक संध्या का कुशल सञ्चालन श्रीमती रश्मि चोपड़ा और डॉ. सुनीता द्विवेदी ने किया था। इस कार्यक्रम में स्थानीय कवियों के आलावा भारत के तीन सुप्रसिद्ध साहित्यकारों और कवियों ने भी अपनी मौलिक रचनाओं का वाचन कर कार्यक्रम को रोचक और सफल बनाया। शाखा-प्रमुख डॉ. शोभा खंडेलवाल जी ने सभी अतिथियों और श्रोताओं का स्वागत किया। तत्पश्चात, शाखा की मातामही आदरणीय श्रीमती सुशीला मोहनका जी के आशीर्वचनों से साहित्यिक संध्या प्रारम्भ हुई। इस कार्यक्रम में प्रस्तुतियों की सुंदर शुरुआत भारत से आये प्रतिष्ठित कहानीकार माननीय डॉ. श्री अशोक लव जी की बहुत ही मार्मिक लघु-कथा - “भगवान सुनते हैं”, से हुई। इस कहानी में उन्होंने कोविड की महामारी के चलते श्रमिक-पलायन और अनजान लोगों की दया और उदारता का बहुत ही सजीव और मार्मिक चित्रण कर सभी सुनने वालों को भावुक कर दिया। भारत से आये सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि, व्यंग्यकार और पत्रकार माननीय डॉ. श्री हरीश नवल जी ने अपने अद्भुत काव्य से श्री कृष्ण और कर्ण (स्वयं) के बीच के अंतर्द्वंद को बहुत ही सुंदर और तर्कनीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। ऎसे जटिल विषय पर इतने सुंदर काव्य की रचना डॉ. नवल जी और उनके समरूप साहित्यकारों को ही सुलभ है। उनकी दूसरी काव्य रचना - “अग्नि साक्षी” में उन्होंने एक बार फिर शब्दों के मायाजाल से अग्नि के विभिन्न स्वरूपों के चित्रण से सभी का मन मोह लिया। सुप्रसिद्ध कवयित्री और साहित्यकार, लखनऊ-निवासी डॉ. श्रीमती अर्चना श्रीवास्तव जी की अनूठी और रोचक, आँखों पर छायाचित्र-प्रस्तुति ने आभासी-प्रांगण को मंत्रमुग्ध कर दिया। छायाचित्रों के माध्यम से उन्होंने “आँखों” द्वारा विभिन्न अभिव्यक्तियों को छंदों में बाँध कर अपने काव्य-पांडित्य से सभी को प्रभावित कर दिया। सचेतन “ख़ारी स्याही में भीगे शब्दों का काफिला” सभी दर्शकों को इस सरिता में बहा ले गया। आंखों और पलकों के आपसी स्नेह से ओतप्रोत उनकी दूसरी रचना से सभी को मंत्रमुग्ध कर एक बार फिर अपने असीम साहित्यिक कौशल और उत्कृष्ट दृष्टिकोण का परिचय दिया। विश्व-प्रसिद्ध और माननीय कवियों और साहित्यकारों की उत्कृष्ट रचनाओं को सुन आभासी-सभागृह के दर्शक पूर्णतः मंत्रमुग्ध हो चुके थे। कार्यक्रम को गति देने सूत्रधारों ने स्थानीय कवियों को अपनी मौलिक रचनाओं के पाठन हेतु आमंत्रित किया। क्लीवलैंड की वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती विमल शरण जी ने सदैव की तरह, दिल को छूने वाली, शब्दों से अलंकृत काव्य रचना “अमेरिका में पहला हिमपात - प्रथम अनुभव” प्रस्तुत की। बर्फ से ढंकी सृष्टि में कहीं दिखाई दी हरियाली के माध्यम से जीवन के सकारात्मक मर्म को उन्होंने बहुत ही कुशलता से कविता का रूप दे दिया। अगली प्रस्तुति में डॉ. तस्नीम लोखंडवाला जी ने “एक योजक चिन्ह हूँ मैं” शीर्षक कविता से प्रवासी-भारतीयों की मनःस्थिति को अत्यंत कुशलतापूर्वक रची, अनोखी कविता के रूप में प्रस्तुत कर सदन में उपस्थित प्रत्येक हृदय में स्पंदन उत्पन्न कर दिया। श्रीमती रेणु चढ्ढा जी ने अपने अनुपम, भावपूर्ण कविता - “तन हारा, मन जीता”, से सभी दर्शकों को न सिर्फ मोहित किया, अपितु अपनी अलंकृत रचना के माध्यम से सशक्त लेखनी का भी परिचय दिया। उनकी पंक्ति, “गीली मिट्टी कलश बनाये” इस बात का उत्कृष्ट प्रमाण है। श्रीमती विम्मी जैन जी ने “हिंदी मेरी भाषा” शीर्षक वाली रोचक कविता के माध्यम से मातृभाषा हिंदी के प्रति अपने प्रेम और गर्व का मनोहरी चित्रण प्रस्तुत कर ‘विश्व हिंदी दिवस’ के आयोजन को अपनी काव्यांजलि के उपहार से साकार बना दिया। श्रीमती वंदना भरद्वाज जी अक्सर अपनी तीखी कलम से सामाजिक कुरीतियों पर काव्यात्मक प्रहार करतीं हैं। इस बार उन्होंने एक अलग विषय पर बहुत सुंदर काव्य-गद्य प्रस्तुत कर समस्त सुनने वालों को अपनी जन्मभूमि में बीते बचपन की मधुर स्मृतियों और सरल ज़िंदगी की सैर करवा दी। उनकी कविता - “ये मेरी ज़िन्दगी” इस सरल जीवन से अनभिज्ञ युवा पीढ़ी के लिए एक अनमोल उपहार है। पर्यावरण-प्रिय और माननीय कवि एवं शायर डॉ. उत्सव चतुर्वेदी जी ने अपनी कटाक्ष रचना - “चिड़ियों के दाने” के माध्यम से मानव द्वारा पर्यावरण के विनाश का विवरण सुना सभी दर्शकों को आत्मग्लानि का बोध कराया। उनकी पंक्ति, “उनका (चिड़ियों का) हक उन्हीं को दे रहा हूँ” मन-मस्तिष्क पर तीखा प्रहार करती है और “रेत में सिर छुपाये शुतुरमुर्ग” की उपमा को साकार करती है। इस संध्या की अंतिम रचना डॉ. सुनीता द्विवेदी की थी। अपनी कविता - “पादुका” के माध्यम से उन्होंने एक स्त्री के जीवन को दर्शाया जो समाज के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है, समाज के प्रहार सहती है, अपना पक्ष कहने का अवसर ढूंढती रहती है लेकिन दोगले समाज पर मुस्कुरा कर अंततः मौन ही रह जाती है। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की उत्तरपूर्वी ओहायो शाखा की अध्यक्षा महोदया श्रीमती किरण खेतान जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया । उन्होंने सभी माननीय अतिथियों, और कवियों को इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए बधाई दी और धन्यवाद प्रकट किया। आभासी पटल से जुड़े सभी दर्शकों को भी साभार धन्यवाद दिया। अंत में, इस कार्यक्रम के निर्बाध सञ्चालन हेतु श्रीमती प्रेरणा खेमका जी, श्रीमती अलका खंडेलवाल जी, श्री अशोक खंडेलवाल जी, श्री अजय चढ्ढा जी, श्री पवन खेतान जी, डॉ. शोभा खंडेलवाल जी तथा अन्य आयोजकों, व तकनीकी टीम के सदस्यों के प्रति धन्यवाद प्रकट किया। ***

Saturday, October 16, 2021

"संस्कृति को सुरक्षित रखने में सांस्कृतिक समारोह महत्त्वपूर्ण होते हैं"- अशोक लव

एनस्कवैयर संस्था द्वारा आयोजित भव्य सांस्कृतिक समारोह का शुभारंभ वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव ने दीप प्रज्वलित करके किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा -" इन समारोहों से हमारी संस्कृति सुरक्षित रहती है। युवा पीढ़ी को अपनी महान संस्कृति का पता चलता है और युवा इसके अंग बनते चले जाते हैं। विदेशों में रहने वाले भारतीय भी उत्साहपूर्वक ऐसे समारोह आयोजित करते रहते हैं। इस कार्यक्रम की आयोजिका सुश्री निशि प्रकाश और निधि सिन्हा को बधाई दी  जिन्होंने ऐसे सुंदर समारोह का आयोजन किया।"

मधुर गायिका और कवयित्री रमा सिन्हा ने माँ दुर्गा की स्तुति में अपना गीत प्रस्तुत किया। उन्होंने डांडिया नृत्य की परंपरा के विषय में बताते हुए कहा कि यह नृत्य श्री कृष्ण की रास लीला का अंग है। नवरात्रियों में माँ दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए इसे सामूहिक रूप में किया जाता है। आयोजिका निशि प्रकाश ने  मुख्य-अतिथि श्री अशोक लव, विशिष्ट-अतिथि रमा सिन्हा और नरेशबाला लव को पुष्प-गुच्छ भेंट किए और संस्था का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि हमारा सौभाग्य है कि इस समारोह का शुभारंभ सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अशोक लव द्वारा किया जा रहा है। इसके पश्चात् सुंदर और आकर्षक वेश-भूषा में सजी युवतियों ने डांडिया नृत्य प्रस्तुत किया। इस अवसर पर कठपुतली शो भी आयोजित किया गया। यह समारोह 'सात्विक फ़ार्म हाउस, नई दिल्ली ' में आयोजित किया गया।





 

Friday, February 10, 2017

साक्षात्कार " लड़कियों के जन्म लेने पर परिवारों में सन्नाटा छा जाता है "- अशोक लव

साक्षात्कार 

अशोक लव 
 
[मैने वरिष्ठ साहित्यकार श्री अशोक लव के कविता-संग्रह " लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान " पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम फ़िल की है। मैने इसके लिए श्री अशोक लव से उनके कविता -संग्रह और साहित्यिक जीवन के संबंध में विस्तृत बातचीत की।] प्रस्तुत हैं इस बातचीत के अंश -
~ आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कैसे मिली ?
* व्यक्ति को सर्वप्रथम संस्कार उसके परिवार से मिलते हैं। मेरे जीवन में मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने अहम भूमिका निभाई है। पिता जी महाभारत और रामायण की कथाएँ सुनते थे। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कहानियाँ सुनाते थे। उनके आदर्श थे--अमर सिंह राठौड़ , महारानी लक्ष्मी बाई, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस ,भगत सिंह आदि। वे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को सुनते थे। इन सबके प्रभाव ने अध्ययन की रुचि जाग्रत की। मेरे नाना जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। वे वेदों और उपनिषदों के मर्मज्ञ थे। उनके साथ भी रहा था। उनके संस्कारों ने भी बहुत प्रभावित किया। समाचार-पत्रों में प्रकाशित साहित्यिक रचनाएँ पढ़ने की रुचि ने लेखन की प्रेरणा दी। इस प्रकार शनैः - शनैः साहित्य-सृजन के संसार में प्रवेश किया।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' कविता -संग्रह प्रकाशित कराने की योजना कैसे बनी ?
मेरा पहला कविता-संग्रह ' अनुभूतियों की आहटें ' सन् 1997 में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले की लिखी और प्रकाशन के पश्चात् लिखी गई अनेक कविताएँ एकत्र हो गई थीं। इन कविताओं को अन्तिम रूप दिया । इन्हें भाव और विषयानुसार चार खंडों में विभाजित किया-- नारी, संघर्ष, चिंतन और प्रेम। इस प्रकार पाण्डुलिपि ने अन्तिम रूप लिया। डॉ ब्रज किशोर पाठक और डॉ रूप देवगुण ने कविताओं पर लेख लिख दिए।
कविता-संग्रह प्रकशित कराने का मन तो काफ़ी पहले से था। अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, सत्य प्रकाश भारद्वाज और कमलेश शर्मा बार-बार स्मरण कराते थे। अंततः पुस्तक प्रकाशित हो गई। एक और अच्छी बात यह हुई कि दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने इसका लोकार्पण किया, जो महिला हैं। उन्होंने इसके नाम की बहुत प्रशंसा की।
--आपने इसका नाम ' लड़कियों ' पर क्यों रखा ?
मैंने पुस्तक के आरंभ में ' मेरी कविताएँ ' के अंतर्गत इसे स्पष्ट किया है-"आज का समाज लड़कियों के मामले में सदियों पूर्व की मानसकिता में जी रहा है। देश के विभिन्न अंचलों में लड़कियों की गर्भ में ही हत्याएँ हो रही हैं। ...लड़कियों के प्रति भेदभाव की भावना के पीछे पुरुष प्रधान रहे समाज की मानसिकता है। आर्थिक रूप से नारी पुरुष पर आर्षित रहती आई है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। "
समय तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है। लड़कियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। आज की लड़कियाँ आसमान छूना चाहती हैं। उनकी इस भावना को रेखांकित करने के उद्देश्य से और समाज में उनके प्रति सकारात्मक सोच जाग्रत करने के लिए इसका नामकरण ' लड़कियों' पर किया। इसका सर्वत्र स्वागत हुआ है।'सार्थक प्रयास ' संस्था की ओर से इस पर फरीदाबाद में चर्चा-गोष्ठी हुई थी। समस्त वक्ताओं ने नामकरण को आधुनिक समय के अनुसार कहा था और प्रशंसा की थी ।
संग्रह की पहली कविता का शीर्षक भी यही है। यह कविता आज की लड़कियों और नारियों के मन के भावों और संघर्षों की क्रांतिकारी कविता है।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' मैं आपने देशी और ग्राम्य अंचलों के शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
इसके अनेक कारण हैं। कविता की भावभूमि के कारण ऐसे शब्द स्वतः , स्वाभाविक रूप से आते चले जाते हैं। 'करतारो सुर्खियाँ बनती रहेंगी , तंबुओं मैं लेटी माँ , छूती गलियों की गंध, जिंदर ' आदि कविताओं की पृष्ठभूमि पंजाब की है। इनमें पंजाबी शब्द आए हैं 'डांगला पर बैठी शान्ति' मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र 'झाबुआ' की लड़की से सम्बंधित है। मैं वहाँ कुछ दिन रहा था। इसमें उस अंचल के शब्द आए हैं। अन्य कविताओं मैं ऐसे अनेक शब्द आए हैं जो कविता के भावानुसार हैं । इनके प्रयोग से कविता अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं। पाठक इनका रसास्वादन अधिक तन्मयता से करता है।
--आपके प्रिय कवि और लेखक कौन-कौन से हैं ?
तुलसी,कबीर , सूरदास , भूषण से लेकर सभी छायावादी कवि-कवयित्रियाँ , विशेषतः 'निराला', प्रयोगवादी, प्रगतिवादी और आधुनिक कवि-कवयित्रिओं और लेखकों की लंबी सूची है। ' प्रिय' शब्द के साथ व्यक्ति सीमित हो जाता है। प्रत्येक कवि की कोई न कोई रचना बहुत अच्छी लगती है और उसका प्रशंसक बना देती है। मेरे लिए वे सब प्रिय हैं जिनकी रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया है। मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छा लिख रहे हैं। वे भी मेरे प्रिय हैं।
--आपने अधिकांश कविताओं में सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
सृजन की अपनी प्रक्रिया होती है। कवि अपने लिए और पाठकों के लिए कविता का सृजन करता है। कविता ऐसी होनी चाहिए जो सीधे हृदय तक पहुँचे। कविता का प्रवाह और संगीत झरने की कल-कल-सा हृदय को आनंदमय करता है। यदि क्लिष्ट शब्द कविता के रसास्वादन में बाधक हों तो ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। कविता को सीधे पाठक से संवाद करना चाहिए।
मैं जब विद्यार्थी था तो कविता के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ जानने के लिए शब्दकोश का सहारा लेता था। जब कविता पढ़ते-पढ़ते शब्दकोश देखना पड़े तो कविता का रसास्वादन कैसे किया जा सकता है? मैंने जब कविता लिखना आरंभ किया , मेरे मस्तिष्क में अपने अनुभव थे। मैंने इसीलिये अपनी कविताओं में सहजता बनाए रखने के लिए सरल शब्दों का प्रयोग किया ताकि आम पाठक भी इसका रसास्वादन कर सके। मेरी कविताओं के समीक्षकों ने इन्हें सराहा है।
साठोतरी और आधुनिक कविता की एक विशेषता है कि वह कलिष्टता से बची है।
--साहित्य के क्षेत्र में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं ?
हिन्दी साहित्य में साहित्यकारों के मूल्यांकन की स्थिति विचित्र है। साहित्यिक-राजनीति ने साहित्यकारों को अलग-अलग खेमों/वर्गों में बाँट रखा है। इसके आधार पर आलोचक साहित्यकारों का मूल्यांकन करते हैं।
दूसरी स्थिति है कि हिंदी में जीवित साहित्यकारों का उनकी रचनाधर्मिता के आधार पर मूल्यांकन करने की परम्परा कम है।
तीसरी स्थिति है कि साहित्यकारों का मूल्यांकन कौन करे ? कवि-लेखक मौलिक सृजनकर्ता होते हैं । आलोचक उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं । आलोचकों के अपने-अपने मापदंड होते हैं। अपनी सोच होती है। अपने खेमे होते है। साहित्य और साहित्यकारों के साथ लगभग चार दशकों का संबंध है। इसी आधार पर यह कह रहा हूँ। रचनाओं के स्तरानुसार उनका उचित मूल्यांकन करने वाले निष्पक्ष आलोचक कम हैं। इसलिए साहित्यकारों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिन्दी साहित्य से संबध साहित्यकार इस स्थिति से सुपरिचित हैं।
मैं साहित्य के क्षेत्र में कहाँ हूँ , इस विषय पर आपके प्रश्न ने पहली बार सोचने का अवसर दिया है।
मैं जहाँ हूँ,जैसा हूँ संतुष्ट हूँ । लगभग चालीस वर्षों से लेखनरत हूँ और गत तीस वर्षों से तो अत्यधिक सक्रिय हूँ। उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, लघुकथाएँ, साक्षात्कार, समीक्षाएं, बाल-गीत, लेख आदि लिखे हैं। कला-समीक्षक भी रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से भी संबद्ध रहा हूँ। पाठ्य-पुस्तकें भी लिखी और संपादित की हैं।
सन्1990 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने उपराष्ट्रपति-निवास में मेरी पुस्तक ' हिन्दी के प्रतिनिधि साहित्यकारों से साक्षात्कार ' का लोकार्पण किया था। यह समारोह लगभग दो घंटे तक चला था।
सन् 1991 में मेरे लघुकथा-संग्रह ' सलाम दिल्ली' पर कैथल (हरियाणा ) की 'सहित्य सभा' और पुनसिया (बिहार) की संस्था ' समय साहित्य सम्मलेन' ने चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की थीं ।
2009 में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने ' अपने निवास पर ' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' का लोकार्पण किया।
अनेक सहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया है।
पचास के लगभग सामाजिक-साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कृत-सम्मानित कर चुकी हैं।
इन सबके विषय मैं सोचने पर लगता है, हाँ हिन्दी साहित्य में कुछ योगदान अवश्य किया है। अब मूल्यांकन करने वाले जैसा चाहें करते रहें।
~ इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' के पश्चात् जून में नई पुस्तक 'खिड़कियों पर टंगे लोग' प्रकाशित हुई है। यह लघुकथा-संकलन है। इसका संपादन किया है। इसमें मेरे अतिरिक्त छः और लघुकथाकार हैं।
अमेरिका में दो माह व्यतीत करके लौटा हूँ। वहां के अनुभवों को लेखनबद्ध कर रहा हूँ। ‘हथेलियों पर उतरा सूर्य’ संपादित कविता-संग्रह अभी-अभी फ़रवरी 2017 प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं का नया कविता-संग्रह भी प्रकाशित कराने की योजना है। इस पर कार्य चल रहा है।
--आप बहुभाषी साहित्यकार हैं। आप कौन-कौन सी भाषाएँ जानते हैं?
हिन्दी,पंजाबी और इंग्लिश लिख-पढ़ और बोल लेता हूँ। बिहार में भी कुछ वर्ष रहने के कारण अंगिका और भोजपुरी का भी ज्ञान है। संस्कृत का भी ज्ञान है। हरियाणा में रहने के कारण हरियाणवी भी जानता हूँ।
--'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता के द्वारा आपने नारी को ही नारी विरोधी दर्शाया गया है। क्यों ?
* हमारे समाज में पुत्र-मोह अत्यधिक है। संतान के जन्म लेते ही पूछा जाता है- 'क्या हुआ?' 'लड़का' शब्द सुनते ही चेहरे दमक उठाते हैं। लड्डू बाँटे जाते हैं। ' लडकी' सुनते ही सन्नाटा छा जाता है। चेहरों की रंगत उड़ जाती है। अधिकांशतः ऐसा ही होता है।
लड़कियों के जन्म लेने पर सबसे अधिक शोक परिवार और संबंधियों की महिलाएँ मनाती हैं। गाँव - कस्बों, नगरों-महानगरों सबमें यही स्थिति है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना 'मनुष्य' है। वह चाहे पुरूष है अथवा महिला। फिर भी अज्ञानतावश लोग ईश्वर की सुंदर रचना ' लड़की' के जन्म लेते ही यूँ शोक प्रकट करते हैं मानो किसी की मृत्यु हो गई हो।
पुत्र-पुत्री में भेदभाव की पृष्ठभूमि में सदियों की मानसिकता है। नारी ही नारी को अपमानित करती है। सास-ननद पुत्री को जन्म देने वाली बहुओं-भाभियों पर व्यंग्य के बाण छोड़ती हैं। अनेक माएँ तक पुत्र-पुत्री में भेदभाव करती हैं।
नारी को नारी का पक्ष लेना चाहिए। इसके विपरीत वही एक-दूसरे पर अत्याचार करती हैं। समाज में लड़कियों की भ्रूण-हत्या के पीछे यही मानसिकता है। मैं वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूँ। 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता में अजन्मी पुत्री अपनी हत्यारिन माँ से अपनी हत्या करने पर प्रश्न करती है। इस विषय पर खंड-काव्य लिखा जा सकता है। मैंने लंबी कविता के मध्यम से नारियों के ममत्व को जाग्रत करने का प्रयास किया है।
--इस संग्रह में आपकी कविताएँ मुक्त-छंद में लिखी गई हैं। आपको यह छंद प्रिय क्यों है? 
प्रत्येक कवि विभिन्न छंदों में रचना करता है। किसी को दोहा प्रिय है तो किसी को गीत - ग़ज़ल। मैंने इस संग्रह अपनी मुक्त-छंद में लिखी कविताओं को ही संग्रहित किया है। ।मैं गीत भी लिखता हूँ और दोहे भी लिख रहा हूँ, बाल-गीत भी लिखे हैं।
मैं छंदबद्ध रचनाओं का प्रशंसक हूँ । गीत-ग़ज़ल-दोहे मुझे प्रिय हैं। मेरे अधिकांश मित्र गीतकार-गज़लकार हैं। मैं उनकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ । कुछ मित्रों के संग्रहों की भूमिकाएँ लिखी हैं तो कुछ मित्रों के गीत-ग़ज़ल-संग्रहों के लोकार्पण पर आलेख-पाठ किया है।
कविता किसी भी छंद में लिखी गई हो , उसे कविता होना चाहिए। मुक्त-छंद की अपनी लयबद्धता होती है, गेयता होती है, प्रवाह होता है।
--आपने अनेक विधाओं में लेखन किया है। लघुकथाकार के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान क्यों है?
लघुकथा की लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में अनेक साहित्यकारों द्वारा समर्पित भाव से किए कार्य हैं। सातवें और विशेषतया आठवें दशक में अनेक कार्य हुए। हमने आठवें दशक में खूब कार्य किए। एक जुनून था। अनेक मंचों से लघुकथा पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित कीं। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चाएँ-परिचर्चाएँ कीं। दिल्ली दूरदर्शन पर गोष्ठियां कराईं , इनमें भाग लिया। अन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया। अच्छी बहसें हुईं।
हरियाणा के सिरसा, कैथल, रेवाड़ीऔर गुडगाँव में गोष्ठियां कराईं । बिहार के पुनसिया और झारखण्ड के डाल्टनगंज तक में गोष्ठियों में सक्रिय भाग लिया। दिल्ली-गाजियाबाद में तो कई आयोजन हुए।
लघुकथा -संकलन संपादित किए,अन्य लघुकथा-संकलनों में सम्मिलित हुए। सन् 1988 में प्रकाशित 'बंद दरवाज़ों पर दस्तकें' संपादित किया जो बहुचर्चित रहा। सन् 1991 में मेरा एकल लघुकथा-संग्रह ‘सलाम दिल्ली’ प्रकाशित हुआ। 'साहित्य सभा' कैथल (हरियाणा) और 'समय साहित्य सम्मलेन ' पुनसिया (बिहार) की ओर से इस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की गईं।सन 2010 में ‘ खिड़कियों पर टंगे लोग’ लघुकथा –संग्रह प्रकाशित हुआ है. संभवतः लघुकथा के क्षेत्र में इस योगदान को देखते हुए साहित्यिक संसार में विशिष्ट पहचान बनी है।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' पर साहित्यकारों और पाठकों की क्या प्रतिक्रिया हुई है ?
*इस पुस्तक का सबने स्वागत किया है। इसके नारी-खंड की जो प्रशंसा हुई है उसका मैंने अनुमान नहीं किया था। इस पर एम फिल हो रही हैं। 'वुमेन ऑन टॉप' बहुरंगी हिन्दी पत्रिका में तो इस नाम से स्तम्भ ही आरंभ कर दिया गया है। इसमें इस पुस्तक से एक कविता प्रकाशित की जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाली युवतिओं पर लेख होता है। कवयित्री आभा खेतरपाल ने 'सृजन का सहयोग' कम्युनिटी के अंतर्गत इस पुस्तक की कविताओं को प्रकाशित करना आरंभ किया था। इन कविताओं पर पाठकों और साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएँ पाकर लगता है इन कविताओं ने सबको प्रभावित किया है। जितनी प्रशंसा मिल रही है उससे सुखद लगना स्वाभाविक है।
इनके अतिरिक्त डॉ सुभद्रा खुराना, डॉ अंजना अनिल, अशोक वर्मा , आरिफ जमाल, डॉ जेन्नी शबनम, एन.एल.गोसाईं, इंदु गुप्ता, डॉ अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता, कमलेश शर्मा, डॉ कंचन छिब्बर,सर्वेश तिवारी, सत्य प्रकाश भारद्वाज , प्रमोद दत्ता , डॉ नीना छिब्बर, आर के पंकज, डॉ शील कौशिक, डॉ आदर्श बाली, प्रकाश लखानी, रश्मि प्रभा, मनोहर लाल रत्नम, चंद्र बाला मेहता, गुरु चरण लाल दत्ता जोश आदि की लंबी लिखित समीक्षाएँ मिली हैं. इन्होंने इस कृति को अनुपम कहा है। आपने तो इस पर शोध किया है।अपनी रचनाओं का ऐसा स्वागत सुखद लगता है।

मेरा सौभाग्य था कि ‘लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ‘ के माध्यम से वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव जी से मिलने और

जानने का सुअवसर मिला.उनकी सरलता-सहजता मुझे सदा प्रेरित करती रहेगी.

Friday, February 3, 2017

Ashok Lav's Message for Education Hub-2017

Message For Education Hub-2017
No one gets no where without education. Education opens the doors of knowledge and success in life.
Education is the form of learning in which knowledge, habits, skills and values are transformed from one generation to the next generation.
Education is the driving force for individuals, societies and nations. It’s must for everyone .  If we want to change our families, societies and nation, education is only tool. Educate a child and build the nation.
I admire you Mr S.S Dogra and your team of Dwarka Parichay for your contribution in educating children. My best wishes for the Education Hub-2017.
Ashok Lav
President- International Hindi Association America (New Delhi, NCR Chapter)
Surya Aptt, Sector-6, Dwarka
New Delhi-110075
(M)+91-9971010063

e-mail-kumar1641@gmail.com

Saturday, January 28, 2017

' हथेलियों पर उतरा सूर्य ' काव्य-संग्रह संपादक अशोक लव , एस.पी.भारद्वाज

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव और एस.पी. भारद्वाज द्वारा संपादित 'हथेलियों पर उतरा सूर्य' ग्यारह कवि-कवयित्रियों की कविताओं का महत्त्वपूर्ण काव्य-संकलन है. नव सुमंगलम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस संग्रह का मूल्य दो सौ रुपए है. प्रकाशक की ओर से इस पर तीस प्रतिशत छूट दी गई है. डाक-खर्च प्रकाशक की ओर से. अपनी प्रति सुरक्षित कराएँ. संपर्क करें-+91-9599398023

Saturday, January 7, 2017

अशोक लव की लघुकथा --घंटियाँ

लघुकथा : घंटियाँ
 ० अशोक लव
वह नास्तिक था. उसके विचार क्रांतिकारी थे. अम्मां के माला फेरने और बापू के दुर्गा-चालीसा पढ़ने पर उसे घोर आपत्ति थी.
उसकी नौकरी लग गई. उसके साहब प्रत्येक मंगल मंदिर जाते थे. वह भी प्रत्येक मंगल साहब के साथ मंदिर जाने लगा.

अवसरवादी व्यवस्था में उसके क्रांतिकारी विचार मंदिर की घंटियाँ बजाने लगे.